नई दिल्ली: हर तरफ सीलिंग की चर्चा है. नेता एक दूसरे से लड़ रहे हैं. लड़ इसलिए रहे हैं क्योंकि वो सीलिंग रोकने के लिए कुछ नहीं कर सकते. जब कुछ नहीं हो पा रहा है तो नेता दोष दूसरों के सिर पर डालना चाह रहे हैं. ताकि व्यापारियों की नाराज़गी से बच सकें. सब उल्टे सीधे काल्पनिक फॉर्मूले लेकर आ रहे हैं. हर फॉर्मूला दूसरी पार्टी को दोषी बताना चाहता है. बीजेपी कह रह है कि सीलिंग दिल्ली सरकार रोक सकती है दिल्ली सरकार कह रही है केन्द्र सरकार और नगर निगम की गलती है लेकिन इस सबके बीच में हमारा बड़ा सवाल है कि सीलिंग रुकनी क्यों चाहिए? अगर दिल्ली में होने वाले हर गैर कानूनी काम को संरक्षण मिलने लगेगा तो कैसे होगा? सिर पर छत आदमी की सबसे मूलभूत आवश्यकता है लेकिन अगर झुग्गियां हटाई जा सकती हैं. लोगों का घर छीना जा सकता है तो न्यूफ्रैंड्स कॉलोनी, करोलबाग और कनॉट प्लेस पर कारोबार करने वाले करोड़पति व्यापारियों के लिए रहम क्यों ?
व्यापारी और उनके हितैषी नेता बार बार दोहरा रहे हैं कि इससे लोग बेरोज़गार हो जाएंगे. इन दुकानों से हज़ारों कर्मचारी जुड़े हैं. उनकी नौकरी का क्या होगा ? सुनने में बड़ा मानवीय तर्क लगता है. आखिर गरीबों की नौकरी का सवाल जो है लेकिन ऐसे बकवास तर्क ज्यादातर गैरकानूनी कामों में लगे हुए लोग देते रहते हैं. विजय माल्या की कंपनी बंद हो तो वो रोज़गार देने के नाम पर ब्लैक मेल करने लगता है. जिस कारोबारी पर हाथ डालो वो कर्मचारियों को आगे कर देता है. उन कर्मचारियों को जिनके शोषण के अनगिनत किस्से उसी कंपनी में सुनाई देते हैं. और तो और जिनकी सुनवाई तक कहीं नहीं होती अचानक इनका रोज़गार अहम हो जाता है.
अगर सीलिंग का मामला लें तो कर्मचारियों की नौकरी अगर जाती है तो यही लाला सेठ गिरधारीलाल टाइप लोग ही तो जिम्मेदार हैं. आप पॉश इलाकों और बड़े बाज़ारों में लाखों रुपये रोज़ाना का कारोबार करते हैं आप कनवर्जन चार्ज क्यों नहीं दे सकते. कनवर्जन चार्ज भी तो आपकी गैरकानूनी हरकतों को कानूनी बनाने का ही तो एक तरीका था. जो इलाके रहने के लिए बने थे वहां लोगों के सस्ते मकान खरीदकर आपने बड़े बड़े शोरूम, बार, क्लब और रेस्त्रां बना लिए लाखों की संपत्ति का इस्तेमाल करोड़ों की संपत्ति के रूप में कर रहे हैं. लेकिन कुछ और लाख देकर उस इलाके को विकसित करने में योगदान नहीं दे सकते. आपकी अवैध दुकान तो हमेशा के लिए सील होनी चाहिए थी. रहने की जगह को रहने लायक नहीं छोड़ा आपने, रिहायशी इलाकों में रहना मुश्किल कर दिया.
लेकिन आप अमीर थे , पार्टियों को चंदा देते थे तो आपकी सुनवाई हो गई. आजतक किसी गरीब की रेहडी तो जुर्माना लेकर नियमित नहीं की जाती लेकिन आपकी दुकान नियमित कर दी गई. नियमित करने के लिए मामूली सी रकम देनी थी वो भी आपने सालों से नहीं दी. अब दुकान में ताला लग रहा है तो कौन ज़िम्मेदार होगा ? आप ही ज़िम्मेदार हुए ना उन लोगों के बेरोज़गार होने के लिए. कर्मचारियों की नौकरियां अगर जा रही हैं तो उसका हर्जाना भी तो व्यापारियों से ही लेना चाहिए.
आप चाहते हैं कि आप कानून तोड़े. मेहनत से बनाए गए शहर के मास्टर प्लान का सत्यानाश कर दें. आप दिल्ली को प्रदूषण को बढ़ाने में योगदान दें. आपके कारण ट्रेफिक और शोर बढ़े. इसके बावजूद आपका अवैध निर्माण वैध किया जा रहा है. लेकिन इलाके को विकसित करने और कारोबारी इलाके में बदलने के लिए अगर थोड़ा खर्च चाहिए तो आप उसे भी देने को तैयार न हों. इसके बाद जब सीलिंग हो तो नेता इलाके इलाके घूमने निकल जाए.
हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि जो ज्यादा जोर से चीखता है उसकी आवाज़ सुनी जाने लगती है. भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक व्यवस्था बनाईहै उसके लिए भी व्यापारियों के मन में कोई सम्मान नहीं है. नेताओं के मन में व्यापारियों के लिए सहानुभूति भरपूर है लेकिन उन्हीं इलाकों में सालों से रहते आ रहे आम लोगों के लिए कोई सहानुभूति नहीं है. वहां के बुजुर्ग घर से निकलने में भीड़भाड़ के कारण डरते हैं. घर में शोर से परेशान रहते हैं लेकिन किसी को परवाह नहीं. नेताओं को उनकी याद नहीं आती. कोई उनके घर नहीं जाता. कोई सीएम उनके लिए मीटिंग नहीं करता . कोई उनके लिए धरना नहीं देता. कोई उनके घुटते जाने और सिमटते जाने के लिए चिंतित नहीं है. व्यापारियों को कुछ रुपये बचाने के लिए पूरी दिल्ली रहन रख दी गई है. रोज़ हड़तालें हो रही हैं. जुलूस निकल रहे हैं और घड़ियाली आंसुओं का सैलाब आ गया है. शर्मनाक !!!