पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के आसपास और पंजाब के रावलपिंडी शहर में कई ऐतिहासिक मंदिर और गुरुद्वारे मौजूद हैं, चाहे बंटवारे के बाद उनकी रौनक पहले जैसी तो नहीं रही है.
ये जिस भी स्थिति में हैं, एक दास्तां बयान करते हैं जिसे पुरातत्व की जानकारी के बिना समझना संभव नहीं है.
इस्लामाबाद की क़ायद-ए-आज़म यूनिवर्सिटी के आर्कियोलॉजी विभाग के प्रोफ़ेसर सादिद आरिफ़ के मुताबिक़ इस्लामाबाद में पुराने समय के तीन मंदिर हुआ करते थे.
एक सैयदपुर गांव में था. दूसरा रावल धाम के क़रीब और तीसरा गोलरा के मशहूर दारगढ़ के पास है.
बंटवारे के बाद इन सभी की देखरेख जैसे थम सी गई. साल 1950 के लियाक़त-नेहरु समझौते में ऐसी सभी पवित्र जगहों को ‘शरणार्थी संपत्ती ट्रस्ट’ के हवाले किया जाना था.
लेकिन सैयदपुर गांव और राम मंदिर परिसर, जो इस्लामाबाद के क्षेत्र में तक़रीबन ढाई सौ साल पहले बनाए गए थे, वो इस्लामाबाद के सीडीए या कैपिटल डेवलपमेंट अथॉरिटी के अधीन हैं.
इस मंदिर और गांव के बारे में प्रोफ़ेसर सादिद ने रावलपिंडी गज़ेटियर से कुछ जानकारी हासिल की है. इसके मुताबिक अंग्रेज़ों के दौर में 1890 में जब गज़ेटियर संकलित किया गया, तो ये दर्ज किया गया कि सैयदपुर गांव लगभग 1848 में बस चुका था.
इसमें राम मंदिर, गुरुद्वारा और एक धर्मशाला भी बनाए गए थे, जहां हर साल लगभग आठ हज़ार लोग मंदिर के दर्शन के लिए आते थे.
फिर बंटवारे के बाद ज़्यादातर हिन्दू भारत चले गए तो ये सारी जगहों को ‘शत्रु संपत्ती’ मानते हुए सील कर दिया गया.
इस्लामाबाद के मिट्ठी थारपारकर के कपिल देव वहां राम मंदिर की फिर से मरम्मत की मांग कर रहे हैं.
जर्मन एनजीओ के लिए काम करने वाले कपिल कहते हैं, “जब सरकार लाल मस्जिद, फ़ैसल मस्जिद और गिरजाघरों को सुरक्षा दे सकती है, तो हमारे मंदिरों को क्यों नहीं?”
कपिल की ये भी शिकायत है, “केवल इस्लामाबाद में क़रीब 300 हिन्दू घर आबाद हैं, लेकिन मंदिर तो दूर की बात, कोई सामुदायिक भवन भी हमारे लिए नहीं है, और किसी भी त्यौहार या अंतिम संस्कार के लिए हमें रावलपिंडी जाना पड़ता है.”
इस राम मंदिर के बारे में ये भी कहा जाता रहा है कि ये राजा मानसिंह के समय में 1580 में बनवाया गया था. हालांकि प्रोफ़ेसर सादिद रावलपिंडी गज़ेटियर के हवाले से इस बात से इंकार करते हैं.
लेकिन उनका ऐसा भी मानना है कि यहां प्रागैतिहासिक काल की गुफाएं भी मिली हैं. इस गांव में भगवान राम और लक्ष्मण के नाम पर कुंड हुआ करते थे, जो गांव वाले इस्तेमाल किया करते थे.
साल 2008 में इस्लामाबाद की सीडीए ने इस गांव को ‘धरोहर गांव’ मानते हुए, इसके पुनर्निर्माण का काम शुरू किया, तब से इसे सैयदपुर गांव के नाम से जाना जाने लगा.
मर्गल्लाह की पहाड़ियों के बीच इतिहास कि दास्तां सुनाते सैयदपुर गांव में होटल खुल गए हैं और स्थानीय कारीगरों के लिए भी रोज़ी रोटी का रास्ता खुल गया है.
इस पुनर्निर्माण में राम मंदिर परिसर की भी रंगाई-पुताई हुई है लेकिन मंदिर से मूर्तियां उठा ली गई हैं.
सैयदपुर गांव में मांसाहार सर्व करने वाले होटलों पर तो बड़े बड़े बोर्ड लगे हुए हैं, मगर राम मंदिर परिसर का नाम ढूंढ़ने से भी नज़र नहीं आता.
मूर्तियों से खाली इस मंदिर का दरवाज़ा ज़रूर खुला मिलता है और यहां ऐसा कुछ भी नहीं लिखा है कि ‘मंदिर में जुते पहनकर आना मना है’.
हिंदू समुदाय के पाकिस्तानी सांसद डॉक्टर रमेश वांकवानी का कहना है कि इस्लामाबाद के नए मेयर ने उनसे सितंबर 2016 में इस मंदिर परिसर को फिर से तैयार करके हिंदू समुदाय के हवाले करने का वादा किया है.
डॉ वांकवानी को इस वादे पर भरोसा है, मगर कपिल देव उसे सिर्फ़ सियासी वादा मानते हैं. उनका मानना है कि वांकवानी भी सत्ताधारी पार्टी पीएमएल (नवाज़) से हैं, इसलिए ये सरकारी वादा है और ऐसे वादे कम ही पूरे होते हैं.
कपिल का कहना है, पूरे पाकिस्तान में जितनी भी ऐसी पवित्र जगहें हैं, उनकी शरणार्थी संपत्ती ट्रस्ट का प्रमुख, एक हिंदू होना चाहिए, जो इन जगहों का पूरा सम्मान कर सके और इन पर गैर क़ानूनी क़ब्ज़े न हों.
पाकिस्तानी लेखक रीमा अब्बास ने कुछ साल पहले पख्तूनख्वा से थारपारकर तक, चालीस मंदिरों पर एक किताब – ‘हिस्टॉरिक टेंपल्स इन पाकिस्तान- ए कॉल टू कॉशेंयंस’ लिखी है.
उनका मानना है कि पाकिस्तान में बाबरी मस्जिद की घटना के बाद मंदिरों पर क़ब्ज़े किए गए थे, लेकिन वो सभी वापस ले लिए गए हैं.
उनका ये भी कहना है, “ज़रूर कुछ मंदिर ऐसे भी हैं जो बहुत क़ीमती संपत्ती हैं. इनमें कुछ लोगों की कारोबारी दृष्टि से दिलचस्पी होने से इंकार नहीं किया जा सकता है.”
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