जब अलग अलग संस्कृतियां साथ साथ बढ़ती हें तो बहुत ज़रूरी होता है एक दूसरे के बारे में जानना. ट्रिपल तलाक की समस्या महिलाओं के लिए बेहद अन्यायपूर्ण है लेकिन इस पर कोई राय बनाने से पहले ज़रूरी है कि मुसलमानों को थोड़ा जाने.
दरअसल हिंदुओं और ईसाइयों के लिए शादी से बाहर निकलना और मुसलमानों के लिए शादी से बाहर निकलना अलग अलग तरह के मामले हैं. मुसलमानों में तलाक को समझने से पहले उनकी शादी को समझना पड़ेगा. मुसलमानों की शादी एक धार्मिक संस्कार नहीं होती. न तो उसमें सात फेरे होते हैं न ईश्वर के सामने एक दूसरे को अपनाने का कोई संस्कार. हिंदू और ईसाइयों की शादी एक धार्मिक संस्कार होती है यही कारण है कि उससे बाहर निकलने पर तमाम तरह की सामाजिक बंदिशें हैं. दोनों ही को समाज के नियमों के मुताबिक परिवार और रिश्तेदारों के दबाव से गुजरना होता है.
हिंदुओं और ईसाइयों के विपरीत मुसलमानों में शादी कोई धार्मिक संस्कार नहीं एक समझौता है एक एग्रीमेंट है. एक कॉन्ट्रेक्ट है. एक ऐसा कॉन्ट्रेक्ट जिसमें सभी शादियों में अलग अलग तरह की शर्तें होती हैं. समय के साथ साथ ये शर्तें मेहर की रकम तक सीमित हो गई हैं. मेहर के पीछे विचार यही रहा होगा कि अगर कॉन्ट्रेक्ट टूटता है तो कमज़ोर सैक्स व्यक्ति को आर्थिक संरक्षण मिले. वो बेसहारा न हो.
जाहिर है कॉन्ट्रेक्ट तोड़ना आसान होता है जबकि रिश्तों का धार्मिक बंधन तोड़ना मुश्किल.
यहां जब ये कहा जा रहा है तो इसका मतलब ये नहीं कि तलाक देकर किसी महिला को अलग कर देना जायज है. दरअसल मुसलमानों को समझना होगा कि महिलाएं इस्तेमाल की चीज़ नहीं है. उन्हें काले कपड़ों में ढंककर रखना और मज़दूरों से भी बदतर हालात में काम करवाना नाजायज है. अगर महिलाएं कमज़ोर होंगी तो कॉन्ट्रेक्ट तोड़ने पर वो बराबरी से फायदे या नुकसान की हालत में नहीं होंगी. यानी अगर मुस्लिम समाज सचमुच शादी को कॉन्ट्रेक्ट मानकर तलाक देने का हक चाहता है तो उसे महिलाओँ को पहले सशक्त बनाना होगा . अगर किसी समाज में महिलाएं कमज़ोर होती है तो उन्हें संरक्षण देना बेहद ज़रूरी है. वैज्ञानिक आधार पर समाज की दशा और सामाजिक न्याय किसी भी धार्मिक कुरीति या रिवाज़ से ज्यादा ज़रूरी है.