नई दिल्ली: राजधानी में वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर से कई गुना अधिक हो गया है . सरकार परेशान है. सभी स्कूलों को तीन दिन बंद रखने, बदरपुर बिजली संयंत्र दस दिन बंद रखने और सड़कों पर पानी का छिड़काव करने जैसे कई कदम उठाने की घोषणा की गई है. कृत्रिम बारिश कराए जाने की संभावनाएं देखी जा रही हैं लेकिन धर्म की दादागिरी जारी है. हाल ही मे दिवाली पर अंधाधुंध पटाखे चलाकर मौत को बुलावा दे चुके दिल्ली वाले फिर भी नहीं सुधरे हैं. जिस दिन दिल्ली में ये चिंता जताई जा रही थी उसी दिन दिल्ली के हर पानी के स्रोत के पास फिर से जमकर आतिशबाज़ी हुई. सबसे प्रदूषित दिन रविवार को जब लोग सांस नहीं ले पा रहे थे जमकर आतिशबाज़ी की गई और सोमवार को तड़के भी . मौका था छट पूजा का. धार्मिक भावनाएं देश, समाज, पर्यावरण और तो और मानवता से भी ऊपर होती हैं. इस घुटन भरे माहौल में लोगों से प्रदूषण से बचने के लिए अगरबत्ती तक न जलाने की अपील की जाती है और लोग आज भी पटाखे चलाने जैसा दुर्दांत काम कर रहे हैं.
इस दिवाली समझदार लोग चुप ही रहे. किसी ने अपील नहीं कि कि पटाखे कम जलाएं. वजह साफ थी एक शब्द भी लिखने पर ट्रोल पीछे पड़ जाते हैं. कहा जाता है हमारे धर्म पर ही सवाल क्यों. हमारा प्रदूषण ही क्यों दिखता है. इसके बाद दुर्व्यवहार. इस संपादकीय के नीचे भी ऐसे ही कमेंट आने वाले हैं.
पटाखों का न तो धार्मिक परंपरा से लेना देना है न छठ के किसी रिवाज़ से. लेकिन फिर भी अपने समाज. अपनी कम्युनिटी और अपनी रीति रिवाज़ की शान बघारने के लिए कोई शबे बारात को बाइकर्स बनकर उत्पात मचाता है कोई गुरुपर्व को सड़कों पर तलवारें हिलाते हैं.
ये पहली बार नहीं हुआ है इससे पहले भी दिल्ली की सड़कों पर धार्मिक अकड़ देखने को मिलती रही है. याद कीजिए कांवड़ के दिन. शांति से गंगाजल लेकर आने और शिवमंदिर में चढ़ाने की परंपरा शक्ति प्रदर्शन का जरिया बन गई है. भारी शोर शराबे वाले डीजे और बेहद अकड़ू कांवड़िए हिंसा के लिए हमेशा उद्यत रहते हैं. हाथ में त्रिशूल बगैरह लेकर चलना शान माना जाता है. जहां कोई बहाना मिला वहीं लोग हिंसा और आगजनी में जुट जाते हैं.
सड़के के किनारे छठ का पांडाल लगाना हो या कांवड़ियों की सेवा के लिए पांडाल बनाना. धर्म के नाम पर सड़कों पर जहां चाहे कीला ठोक देने की परंपरा शान बन गई है. ये लोग एक दिन का पांडाल लगाकर सड़कें तोड़ देते है और पूरे साल सड़कें खराब होने के लिए सरकार को कोसते रहते हैं.
कुछ लोग खास तौर पर आयोजक तो धड़ल्ले से खराब सड़कों के लिए आंदोलन करते हैं और सरकार के खिलाफ मोर्चे निकालते हैं. बुरी बात तो ये है कि ऐसे तत्वों के खिलाफ सख्ती से सरकार भी बचती है. कुछ राजनीतिक पार्टियां को इस उन्माद को अपनी राजनीति का हथियार तक बना लेती हैं.