ये कहानी ओडिशा की एक महिला मज़दूर की मजबूरी की है. दानामांझी अपनी पत्नी की लाश को कंधे पर लादकर 60 किलो मीटर पैदल चला था लेकिन सरोजिनी के पास ताकत नहीं थी. गरीबी का बोझ उसके सिर पर पहले ही था. मजबूरी की वजह से उसने दिल पर पत्थर रखा और पति के शव को ट्रेन में ही छोड़कर स्टेशन पर उतर गई.
सरोजिनी अपने बीमार पति के साथ आंध्र प्रदेश से ओडिशा के रायपुर लौट रही थीं, रास्ते में पति की तबीयत और बिगड़ गई और उनकी मौत हो गई.
आंसुओं से डबडबाती आंखों और रूंधी हुई आवाज़ में सरोजिनी बेबसी के उस पल को याद करते हुए कहती हैं, “बिलकुल अनजान जगह और मैं अकेली अनपढ़ औरत. उस पर तीन छोटे-छोटे बच्चे. खाने तक के पैसे नहीं थे. कहाँ जाती? क्या करती? किससे मदद मांगती? हारकर मुझे पति का शव ट्रेन में ही छोड़कर बच्चों के साथ रायपुर जाने वाली गाड़ी में बैठना ही पड़ा.”
फ़ोन पर सरोजिनी ने किसी तरह घरवालों को सूचना दी जुगल के बड़े भाई नील और एक रिश्तेदार रायपुर जाकर उसे और बच्चों को गांव ले गये.
नील ने बताया कि एक रिश्तेदार को जुगल का शव वापस लाने के लिए महाराष्ट्र के नागपुर भेजा गया लेकिन उसे धक्के खाने के बाद कोई सूचना नहीं मिल पाई और ख़ाली हाथ वापस आना पड़ा.
बाद में महाराष्ट्र में रेलवे पुलिस सुपरिटेंडेंट शैलेष बलकावडे ने नागपुर में स्थानीय पत्रकार संजय तिवारी को बताया कि आंध्र प्रदेश से आनेवाली एक ट्रेन में एक शव मिला था.
उन्होंने कहा कि पोस्टमॉर्टम में मौत की वजह स्वभाविक बताया गया, और दिन बाद शव को दफ़ना दिया गया.
पुलिस अधिकारी का कहना था कि ऐसे शवों को दफ़नाया इसलिए जाता है कि ताकि अगर बाद में कोई शव मांगने आए तो उसे खोदकर फिर से निकाला जा सके.
शव न मिलने की वजह से जुगल का अंतिम संस्कार तो नहीं हो पाया. लेकिन बुधवार को हिन्दू रीतियों के अनुसार दसवें की रस्म पूरी की गई.
ओडिशा के हज़ारों लोगों की तरह नुआपाड़ा जिले के गन्डामेर गांव में रहनेवाले 29 वर्षीय जुगल नाग अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ आंध्र प्रदेश के पेडापल्ली के ईंट भट्ठे में काम करने गए थे.
लेकिन वे कुछ दिन बाद बीमार पड़ गए तो भट्ठे वाले ने उन्हें टिकट कटवाकर ट्रेन में बिठा दिया. उनके पास जो थोड़े बहुत पैसे थे वह रास्ते में ख़त्म हो गए.
ईंट भट्ठों में मज़दूरी
हर साल खेतों में कटाई का काम समाप्त होने के बाद नुआपाड़ा, कालाहांडी और बोलांगीर जिलों के लाखों खेतिहर मज़दूर लगभग छह महीनों के लिए आंध्र प्रदेश और अन्य राज्यों के ईंट भट्ठों में काम करने जाते हैं और अप्रैल-मई में वापस आ जाते हैं.
अधिकांश अपने पूरे परिवार के साथ बाहर जाते हैं. सारी सरकारी कोशिशों के बावज़ूद ‘दादन’ के नाम जाने जाने वाली यह प्रथा पिछले कई दशकों से इसलिए चली आ रही है कि नवंबर से अप्रैल तक के छह महीने में इन लोगों को अपने इलाक़े में काम नहीं मिलता.
‘नरेगा’ में काम मिलता भी है तो ये लोग ‘दादन’ जाना पसंद करते हैं क्योंकि इसमें उन्हें एकमुश्स्त 20 से 40 हज़ार रूपए तक मिल जाते हैं जिसके एवज़ में उन्हें छह महीने काम करना पड़ता है.
पैसा उन्हें बाहर जाने से पहले ही मिल जाता है कार्यस्थल पर उन्हें केवल रहने, खाने को ही मिलता है, कोई मज़दूरी नहीं.
अगस्त के महीने मे कालाहांडी के एक आदिवासी दाना मांझी को शववाहक गाड़ी न मिलने के कारण पत्नी का शव कंधे पर उठाना पड़ा था.
जुगल नाग को बिचौलिए (स्थानीय भाषा में ‘सरदार’) से 40,000 रुपये एडवांस मिले थे, जिसमें से वे और उनका परिवार 30,000 रूपए का काम कर चुके थे.
मालिकों द्वारा मज़दूरों के शोषण और पर उनपर अत्याचार के किस्से आए दिन अखबार की सुर्खियां बनतीं हैं.
गौरतलब है कि अगस्त के महीने मे कालाहांडी के एक आदिवासी दाना मांझी शववाहक गाड़ी न मिलने के कारण अपनी पत्नी के शव को अपने कंधे पर ढो कर जिला सदर महकुमा भवानीपाटना से 60 किलोमीटर दूर अपने गांव के लिए निकल पड़े.
पत्नी के शव को लेकर दाना करीब 12 किलोमीटर का रास्ता तय कर चुके थे जब एक स्थानीय पत्रकार की नज़र उसपर पड़ी और उन्होंने एक एम्बुलेंस का इंतज़ाम किया जिसमें दाना, उनकी 13 साल की बेटी और उनकी पत्नी के शव को उनके गांव पहुँचाया गया. inputs from BBC report